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लेख

क्या ब्रह्मांड गणित से बना है ?

स्कंद शुक्ल


गणित और विज्ञान को सदियों से 'अन्य' लोग एक खेमे के सदस्य मानते चले आ रहे हैं। समझते कि गणितीयता और वैज्ञानिकता कहाँ-कहाँ परस्पर जोर-आजमाइश करती हैं और उनमें कितने गहरे विभेद हैं। इन्हीं में एक बिंदु जिस पर संसार-भर के वैज्ञानिक और गणितज्ञ चर्चा करते आए हैं, वह उपरिलिखित प्रश्न है।

मैक्स टेग्मार्क कॉस्मोलॉजिस्ट हैं। वे कहते हैं कि संसार गणित से निर्मित है, और कुछ नहीं। संसार का हर चर-अचर, हर जड़-चेतन गणितीय समीकरणों का एक पुलिंदा है, उन्हीं का निरूपण-भर है। आसमान में गेंद उछालिए, गणितानुसार नीचे आती है। पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करते समझिए, वह भी गणित का अनुसरण करती है। नन्हें परमाणुओं और उनसे भी छोटे कणों से बने हम-सभी अपने भीतर ढेर सारे गणितीय समीकरण ही तो समेटे हैं ! फूल की आकृति से लेकर आकाशगंगा की आकृति तक, इलेक्ट्रॉन से लेकर रॉकेट की गति तक, हर जगह गणितीयता ही तो है !

संसार को गणितीय देखने वाले टेगमार्क पहले व्यक्ति नहीं हैं। जिस परिकल्पना को वे प्रस्तुत करते हैं, वह गणितीय ब्राह्मांडीय परिकल्पना या मैथेमैटिकल यूनिवर्स हायपोथीसिस कहलाती है। एक ऐसी अवधारणा जिसकी नींव पायथागोरस और प्लेटो के काल में (या इनसे भी पहले) पड़ गई थी। लेकिन प्राचीन विद्वानों और टेगमार्क जैसे आधुनिक मनीषियों की मान्यताओं में भी ध्यान से समझने पर एक विशिष्ट अंतर हमें देखने को मिलता है।

गणित मनुष्य के मस्तिष्क में है और उसके प्रयोग से वह संसार-भर की घटनाएँ समझता है : यह कहना एक बात है। लेकिन संसार स्वयं गणितरूप है, एकदम दूसरी बात है। टेगमार्क हमारे सामने दूसरी बात रखते हैं। वे कहते हैं कि गणित केवल मानवीय मस्तिष्क में अस्तित्व नहीं रखती, वह सचमुच 'है'। बल्कि वही-भर सत्य है।

गणितीयता को समस्त चर-अचर, जड़-चेतन का अस्तित्व मान लेने से हम आगे के सवालों से जूझते हैं। फिर चेतना क्या है ? इसपर टेगमार्क कहते हैं कि जिसे हम चेतना कहते हैं, वह दरअसल जटिल गणितीय समीकरणों का ही एक झाला है। बल्कि वे आशान्वित हैं कि आगे चलकर हम चेतना और पदार्थ के बीच के इस कथित बहुचर्चित विभेद को पाटने में भी सफल होंगे। हमने पहले भी कई विभेद पाटे हैं। हमने पदार्थ-ऊर्जा का विभेद खत्म किया, हमने विद्युत्-चुंबकीयता का विभेद मिटाया, हमने काल-अंतराल को मिलाकर एक कर दिया। हम चेतना और पदार्थ में भी एक दिन एका करा देंगे।

लेकिन टेगमार्क अपनी परिकल्पना के साथ एक और मुद्दे पर विज्ञान और वैज्ञानिकों से उलझते नजर आते हैं ? क्या मनुष्यों में मुक्त चुनाव की शक्ति है ? क्या वे फ्री विल रखते हैं ? कई गणितज्ञों की तरह टेगमार्क का उत्तर 'हाँ' है। जबकि अभी तक मुख्य धारा का विज्ञान यही मानता आया है कि नहीं मनुष्यों में अपना चुनाव चुनने की शक्ति नहीं है। जिसे और जो वे चुनते हैं, वह पिछली घटनाओं का प्रतिफल होता है। यह समझिए कि गणित अतीत से वर्तमान को प्रभावित नहीं मानती, इसलिए वह मुक्त चुनाव को मानती है। विज्ञान अतीत से वर्तमान को संबद्ध मानता है, इसलिए वह मुक्त चुनाव को नहीं मानता।

बाकी सफर जारी है। गणित का भी, विज्ञान का भी। नोकझोंक। प्यार-तकरार।


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